"बड़ी भावनाओं से सींचा था जिस पेड़ को कभी....!!"
"बड़ी भावनाओं से सींचा था जिस पेड़ को कभी,
उसी पर लटकी मिली बाप को खोई बेटी अभी"
आज-कल चारों तरफ़ एक शब्द की गूँज है "विकास...विकास ... देश का विकास", राजनेता और पूँजीपति अपने-अपने तरीक़े इस शब्द का भरपेट इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं । लेकिन वास्तविकता क्या है ? कहाँ , कैसे, किसका और कैसा विकास ? इन सवालों के शायद या तो कोई जवाब हैं ही नहीं और अगर हैं तो मिलते नहीं या "विकास-विकास" का शोर मचाकर नारे लगाने वाले लोग जवाब देना नहीं चाहते या जवाब देना ज़रूरी ही नहीं समझते ?? देश को महाशक्ति बनाना या बहुत सारी सड़कें बनाना या बहुत ऊँची-ऊँची इमारतें बनाना या हर किसी के हाथ में मोबाईल, लैपटॉप इत्यादि जैसी चीज़ें दे देना और ना जानें इसी तरह के कितने ही बेमानी से साधनों को विकास बोला और समझा जाने लगा है ?
मेरी नज़र में ये विकास का एक हिस्सा होता है और होना भी चाहिये, वक़्त के साथ उसकी रफ़्तार से चलना ही चाहिये , लेकिन क्या इन सबके साथ हमें अपने संस्कार, सोच और मानसिकता का विकास नहीं करना चाहिये । शायद सबसे ज़्यादा इसी के विकास की ज़रूरत है , इसी से हम अपने समाज और उसमें दबी रूढीवादी मानसिकता को बदल सकते हैं । समाज और देश चाहे कोई भी हो लेकिन सभी में जो एक बात समान रूप से देखी जा सकती है वो है लड़कियों / स्त्रियों के प्रति होता और रोज़ बढ़ता अत्याचार । आये दिन बलात्कार , यौन उत्पीड़न , घरेलू हिंसा जैसी वारदातें बढ़ती जा रही हैं । रात का घना अंधेरा हो या दिन का उजाला हमारी बेटियाँ कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं करती ।
सोचो क्या बीतती होगी उस बाप पर जिसकी ६ साल की बच्ची को कुछ जानवरों से भी बदतर इंसान अपनी हैवानियत का शिकार बनाकर जान से मार देते हैं, पेड़ पर टाँग देते हैं और उस बाप को ये साबित करना पड़ता है और हर रोज़ वो अपनी बेटी का बलात्कार होते देखता है । क़ानून नहीं है और अगर है तो इंसाफ़ मिलता नहीं है और मिलता है तो परिवार की आधी या पूरी ज़िंदगी बीत जाती है । नेता अपनी राजनीति करते हैं और बिज़नेस मैन अपना धंधा करते हैं, और इस सबके बीच माँ-बाप अपनी बच्ची का रोज़ एक बार बलात्कार होता देखकर , ख़ून के घूँट पीते हैं.........
क्यूँ हम अपनी इस मानसिकता का विकास करने की नहीं सोचते ? क्यूँ नहीं हम अपने समाज से उन जानवरों को कीड़े लगी हुई खेती की तरह काटकर अलग फेंक देते ? क्यूँ नहीं हम ऐसे विकसित समाज और देश को बनाने की बात करते जिसमें हमारी बच्चियाँ हर तरह से सुरक्षित हों ?? ऐसे बहुत सारे क्यंू मेरे ज़हन में हर बार आते हैं , हर रोज़ आते है जब मेरी बेटी मुझसे कहीं बाहर जाने की इजाज़त माँगती है और मैं ना जाने कितनी ही बातें सोचकर उसे कभी हाँ कहता हूँ , तो कभी ना कहता हूँ ??
ऐसे क्यूँ आपके भी ज़हन में आते होंगे ....... तो सोचिये ज़रा हमें कैसा और किस तरह का "विकास" करना है..... सोचिये - सोचिये ़़़..... और थोड़ा दर्द भी पैदा कीजिये अपने अंदर उन सभी बच्चियों / स्त्रियों के लिये .... और कोशिश कीजिये उनको इज़्ज़त, मान और सम्मान देने की , कोशिश कीजिये ..... ज़रूर कर पाओगे इतना कोई बहुत बड़ा काम नहीं..??